Monday, April 18, 2016

Kehne ko Kaafir Hain..

बेमंज़िले थे रास्ते, जिनके हम मुसाफिर थे ..
यक़ीन तो था बेशक, कहने को काफ़िर थे ..

मज़हबों पे ऐतबार न हो पाया अब तलक,
पर इश्क़-ए-मिजाज़ी से इश्क़-ए-हक़ीक़ी तक,
पहुँचना ज़रूर चाहते थे..
खुदा का खौफ़ नहीं, एक सुकून-ओ-सुरूर चाहते थे..
ये चाहत, ये ख़्वाहिश क्या समझेगा ये ज़माना,
जो मज़हब न मंज़ूर था, तो नज़रों में काफ़िर थे..

कुछ मासूम से ख्वाब थे, हक़ीक़त की दुआ करते थे,
ख्वाबों की ताबीर बताने वाले से हिज़्र की दुआ करते थे..
न मंज़िल मालूम थी न अंजाम,
वादों के अफ़सानों के राहों पे छोड़े निशान,
खुद से अंजान भी थे, थे थोड़े नादान

आज भी सफ़र के नए मोड़ में, बेख़ौफ़ मुसाफ़िर हैं,
बेइन्तेहाँ यकीन है खुद पे और खुदा पे,
कहने को काफ़िर हैं।



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